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क्यूँ शहर उजाड़ सा पड़ा था | शाही शायरी
kyun shahr ujaD sa paDa tha

ग़ज़ल

क्यूँ शहर उजाड़ सा पड़ा था

महशर बदायुनी

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क्यूँ शहर उजाड़ सा पड़ा था
क्या सर पे पहाड़ आ पड़ा था

क़ुदरत तो गवाह है कि मैदाँ
हारे थे कि हारना पड़ा था

थी बर्फ़ सी रात और लश्कर
बे-ख़ेमा ओ बे-रिदा पड़ा था

क्या भीड़ थी कल और आज देखा
सुनसान वो रास्ता पड़ा था

क्यूँ ख़ेमों की आग बुझ गई थी
ये राख से पूछना पड़ा था

वो शाम-ए-सुकूत भी अजब थी
क़ातिल को पुकारना पड़ा था

था माल दुकाँ में हस्ब-ए-तख़्सिस
तह-ख़ाना मगर अटा पड़ा था

इस बाब-ए-रसद से रिज़्क-ए-त़क़्दीर
ले आए जो कुछ गिरा पड़ा था

अपने ही मुजस्समे को तोड़ा
हाथ अपना ग़लत भी क्या पड़ा था