क्यूँ शहर उजाड़ सा पड़ा था
क्या सर पे पहाड़ आ पड़ा था
क़ुदरत तो गवाह है कि मैदाँ
हारे थे कि हारना पड़ा था
थी बर्फ़ सी रात और लश्कर
बे-ख़ेमा ओ बे-रिदा पड़ा था
क्या भीड़ थी कल और आज देखा
सुनसान वो रास्ता पड़ा था
क्यूँ ख़ेमों की आग बुझ गई थी
ये राख से पूछना पड़ा था
वो शाम-ए-सुकूत भी अजब थी
क़ातिल को पुकारना पड़ा था
था माल दुकाँ में हस्ब-ए-तख़्सिस
तह-ख़ाना मगर अटा पड़ा था
इस बाब-ए-रसद से रिज़्क-ए-त़क़्दीर
ले आए जो कुछ गिरा पड़ा था
अपने ही मुजस्समे को तोड़ा
हाथ अपना ग़लत भी क्या पड़ा था
ग़ज़ल
क्यूँ शहर उजाड़ सा पड़ा था
महशर बदायुनी

