क्यूँ न कहें बशर को हम आतिश-ओ-आब ओ ख़ाक-ओ-बाद
क़ुदरत-ए-हक़ से हैं बहम आतिश-ओ-आब ओ ख़ाक-ओ-बाद
अख़गर-ए-ग़ुंचा आब-जू गर्द-ए-चमन नसीम-ए-सुब्ह
हैं ये गिरह-कुशा-ए-ग़म आतिश-ओ-आब ओ ख़ाक-ओ-बाद
हुक़्क़े को अहल-ए-मअरिफ़त क्यूँ-कि न समझें हमदम अब
ये भी रखे है बेश-ओ-कम आतिश-ओ-आब ओ ख़ाक-ओ-बाद
सोज़िश-ए-दाग़-ओ-आबला गर्द-ए-अलम शुमार-ए-दम
हिज्र में चारों हैं बहम आतिश-ओ-आब ओ ख़ाक-ओ-बाद
बर्क़-ओ-सहाब ओ गर्द-बाद दश्त-ए-जुनूँ में साथ हैं
हैं ये मिरे रफ़ीक़-ए-दम आतिश-ओ-आब ओ ख़ाक-ओ-बाद
रू ओ अरक़ ग़ुबार-ए-ख़त जुम्बिश-ए-ज़ुल्फ़ की हवा
चारों हैं दिल के हक़ में सम आतिश-ओ-आब ओ ख़ाक-ओ-बाद
चश्म में आतिशीं हैं अश्क दिल में ग़ुबार-ए-आह-ए-सर्द
दोनों से लेते हैं जनम आतिश-ओ-आब ओ ख़ाक-ओ-बाद
मुझ को ख़ुदाई की क़सम रखते हैं घेरे दम-ब-दम
तेरे ये इश्क़ में सनम आतिश-ओ-आब ओ ख़ाक-ओ-बाद
क्यूँ न हवास-ए-ख़मसा गुम अहल-ए-सुख़न के हों 'नसीर'
तुझ ही से बस हुए रक़म आतिश-ओ-आब ओ ख़ाक-ओ-बाद
ग़ज़ल
क्यूँ न कहें बशर को हम आतिश-ओ-आब ओ ख़ाक-ओ-बाद
शाह नसीर