क्यूँ मिरे लब पे वफ़ाओं का सवाल आ जाए
ऐन मुमकिन है उसे ख़ुद ही ख़याल आ जाए
हिज्र की शाम भी सीने से लगा लेता हूँ
क्या ख़बर यूँही कभी शाम-ए-विसाल आ जाए
घर इसी वास्ते जंगल में बदल डाला है
शायद ऐसे ही इधर मेरा ग़ज़ाल आ जाए
धनक उभरे सर-ए-अफ़्लाक कड़ी धूप में भी
दश्त-ए-वहशत में अगर तेरा ख़याल आ जाए
कोई तो उड़ के दहकता हुआ सूरज ढाँपे
गर्द ही सर पे घटाओं की मिसाल आ जाए
छोड़ दे वो मुझे तकलीफ़ में मुमकिन तो नहीं
और अगर ऐसी कभी सूरत-ए-हाल आ जाए
उस घड़ी पूछूँगा तुझ से ये जहाँ कैसा है
जब तिरे हुस्न पे थोड़ा सा ज़वाल आ जाए
कुछ नहीं है तो भुलाना ही उसे सीख 'अदीम'
ज़िंदगी में तुझे कोई तो कमाल आ जाए
ग़ज़ल
क्यूँ मिरे लब पे वफ़ाओं का सवाल आ जाए
अदीम हाशमी