क्यूँ कहूँ क़ामत को तेरे ऐ बुत-ए-राना अलिफ़
और कुछ ख़ूबी नहीं रखता है इक सीधा अलिफ़
जैसा है उस बरहमन ज़ादे के क़श्क़े का अलिफ़
लिख नहीं सकता है कोई ख़ुश-नवीस ऐसा अलिफ़
जब से दी तालीम-ए-गिर्या ऊस्ताद-ए-इश्क़ ने
तख़्ता-ए-सीना पे तिफ़्ल-ए-अश्क ने खींचा अलिफ़
वस्फ़-बेनी में ये क्या मिस्रा ज़बाँ पर आ गया
उस की बीनी है बुलंद और उस से है छोटा अलिफ़
गर्द है नक़्श-ओ-निगार-ए-चीन उन के रू-ब-रू
हैं रिदा-ए-फ़क़्र पर इस तरह के ज़ेबा अलिफ़
क़त्ल को आशिक़ के अंगुश्त-ए-इशारत कर बुलंद
तेरी अंगुश्त-ए-इशारत है शहादत का अलिफ़
सर-कशी करता है यूँ हर आन मेरा नफ़्स-ए-शूम
जिस तरह से दम-ब-दम हो जाए है घोड़ा अलिफ़
इतने पर भी ज़ात-ए-वाहिद से हैं ग़ाफ़िल नाक़िसाँ
खिंच रहा है मू-ए-तन से तन पे सर-ता-पा अलिफ़

ग़ज़ल
क्यूँ कहूँ क़ामत को तेरे ऐ बुत-ए-राना अलिफ़
जोशिश अज़ीमाबादी