क्यूँ ग़म-ए-रफ़्तगाँ करे कोई
फ़िक्र-ए-वामाँदगाँ करे कोई
तेरे आवारगान-ए-ग़ुर्बत को
शामिल कारवाँ करे कोई
ज़िंदगी के अज़ाब क्या कम हैं
क्यूँ ग़म-ए-ला-मकाँ करे कोई
दिल टपकने लगा है आँखों से
अब किसे राज़दाँ करे कोई
उस चमन में ब-रंग-ए-निकहत-ए-गुल
उम्र क्यूँ राएगाँ करे कोई
शहर में शोर घर में तन्हाई
दिल की बातें कहाँ करे कोई
ये ख़राबे ज़रूर चमकेंगे
ए'तिबार-ए-ख़िज़ाँ करे कोई
ग़ज़ल
क्यूँ ग़म-ए-रफ़्तगाँ करे कोई
नासिर काज़मी