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क्यूँ ग़म-ए-रफ़्तगाँ करे कोई | शाही शायरी
kyun gham-e-raftagan kare koi

ग़ज़ल

क्यूँ ग़म-ए-रफ़्तगाँ करे कोई

नासिर काज़मी

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क्यूँ ग़म-ए-रफ़्तगाँ करे कोई
फ़िक्र-ए-वामाँदगाँ करे कोई

तेरे आवारगान-ए-ग़ुर्बत को
शामिल कारवाँ करे कोई

ज़िंदगी के अज़ाब क्या कम हैं
क्यूँ ग़म-ए-ला-मकाँ करे कोई

दिल टपकने लगा है आँखों से
अब किसे राज़दाँ करे कोई

उस चमन में ब-रंग-ए-निकहत-ए-गुल
उम्र क्यूँ राएगाँ करे कोई

शहर में शोर घर में तन्हाई
दिल की बातें कहाँ करे कोई

ये ख़राबे ज़रूर चमकेंगे
ए'तिबार-ए-ख़िज़ाँ करे कोई