क्यूँ डराते हो मुझे मौत का साया बन कर
मेरे सीने में उतर जाओ उजाला बन कर
क्यूँ नहीं चलते कि जाना है बहुत दूर अभी
क्यूँ यहाँ रुक गए बेकार तमाशा बन कर
टूट कर बुझ गए आकाश के सारे सूरज
और मैं रह गया इस दहर में अंधा बन कर
मैं ही इक ज़हर लगा अपनों को बेगानों को
मैं ही इक क़त्ल हुआ शहर में सच्चा बन कर
क्यूँ भला छोड़ नहीं देता वो तन्हा मुझ को
क्यूँ मिरे साथ लगा रहता है साया बन कर
ग़ज़ल
क्यूँ डराते हो मुझे मौत का साया बन कर
कुमार पाशी

