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क्या सोचते हो अब फूलों की रुत बीत गई रुत बीत गई | शाही शायरी
kya sochte ho ab phulon ki rut bit gai rut bit gai

ग़ज़ल

क्या सोचते हो अब फूलों की रुत बीत गई रुत बीत गई

मजीद अमजद

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क्या सोचते हो अब फूलों की रुत बीत गई रुत बीत गई
वो रात गई वो बात गई वो रीत गई रुत बीत गई

इक लहर उठी और डूब गए होंटों के कँवल आँखों के दिए
इक गूँजती आँधी वक़्त की बाज़ी जीत गई रुत बीत गई

तुम आ गए मेरी बाहोँ में कौनैन की पेंगें झूल गईं
तुम भूल गए, जीने की जगत से रीत गई रुत बीत गई

फिर तैर के मेरे अश्कों में गुल-पोश ज़माने लौट चले
फिर छेड़ के दिल में टीसों के संगीत गई रुत बीत गई

इक ध्यान के पाँव डोल गए इक सोच ने बढ़ कर थाम लिया
इक आस हँसी इक याद सुना कर गीत गई रुत बीत गई

ये लाला-ओ-गुल क्या पूछते हो सब लुत्फ़-ए-नज़र का क़िस्सा है
रुत बीत गई जब दिल से किसी की पीत गई रुत बीत गई