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क्या मैं जाता हूँ सनम छुट तिरे दर और कहीं | शाही शायरी
kya main jata hun sanam chhuT tere dar aur kahin

ग़ज़ल

क्या मैं जाता हूँ सनम छुट तिरे दर और कहीं

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

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क्या मैं जाता हूँ सनम छुट तिरे दर और कहीं
ले क़सम मुझ से जो मेरा हो गुज़र और कहीं

रफ़्तगी का है ये आलम कि तिरे वक़्त-ए-ख़िराम
पाँव जाते हैं कहीं और कमर और कहीं

सुब्ह पर वस्ल की ठहरी है शब-ए-हिज्र तिरे
जावें जल्दी से गुज़र चार पहर और कहीं

वादी-ए-क़ैस में जो ले गई मुझ को वहशत
दिल के बहलाने की जा थी न मगर और कहीं

उस के कूचे को तू ऐ आह ग़नीमत ही समझ
सच तो ये है नहीं इतना भी असर और कहीं

हम हैं और ख़ोशा-ए-पर्वीं का तमाशा हमा-शब
जा के झमकाइए ये अक़्द-ए-गुहर और कहीं

ला-उबाली मिरी देखे है तू आईना कहाँ
दिल तिरा और कहीं है तो नज़र और कहीं

वादा-ए-वस्ल दिया ईद की शब हम को सनम
और तुम जा के हुए शीर-ओ-शकर और कहीं

सामने उस के लगूँ रोने तो झुँझला के कहे
याँ से ले जाइए ये दीदा-ए-तर और कहीं

चमन-ए-लाला-सताँ में मुझे जाने दे सबा
चंगे होंगे न मिरे दाग़-ए-जिगर और कहीं

तफ़रक़ा बाद-ए-ख़िज़ाँ ने ये चमन में डाला
गुल कहीं और पड़ा है तो समर और कहीं

बर्ग-ओ-बर ये तिरे कूचे में तो लाता ही नहीं
जा के बिठलावेंगे ख़्वाहिश का शजर और कहीं

ऐसे घबराए कि हालत न रही कुछ बाक़ी
देख आए जो उसे शम्स ओ क़मर और कहीं

गर मैं बद-नाम हुआ उस की गली में तो हुआ
यारो अब याँ से न जावे ये ख़बर और कहीं

'मुसहफ़ी' मैं हूँ वो सर-गश्ता कि ख़ुर्शीद की तरह
शाम गर और कहीं की तो सहर और कहीं