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क्या लुत्फ़ हवाओं के सफ़र में नहीं रक्खा | शाही शायरी
kya lutf hawaon ke safar mein nahin rakkha

ग़ज़ल

क्या लुत्फ़ हवाओं के सफ़र में नहीं रक्खा

सलीम फ़राज़

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क्या लुत्फ़ हवाओं के सफ़र में नहीं रक्खा
या जज़्बा-ए-पर्वाज़ ही पर में नहीं रक्खा

नन्हा सा दिया भी शब-ए-तीरा में बहुत है
सौदा किसी ख़ुर्शीद का सर में नहीं रक्खा

बुझ जाएँगे ख़्वाबों के चराग़ आब-ए-रवाँ से
इस डर से उन्हें दीदा-ए-तर में नहीं रक्खा

शायद दर-ओ-दीवार भी पहचान न पाएँ
बरसों से क़दम अपने ही घर में नहीं रक्खा

हर रोज़ कोई तख़्ता मगर टूट रहा है
हर-चंद कि कश्ती को भँवर में नहीं रक्खा

सूरज तो पराया था पराया ही रहा वो
क्यूँ तुम ने शजर राह-ए-गुज़र में नहीं रक्खा

तकमील के पैकर में जिसे ढूँढ रहे हैं
ख़ाका भी 'सलीम' इस का नज़र में नहीं रक्खा