क्या क्या अजल ने जान चुराई तमाम शब
कोई भी आरज़ू न बर आई तमाम शब
दिल-सोज़ कब हुए हैं कि जब ख़ाक हो गया
तुर्बत पे मेरी शम्अ जलाई तमाम शब
ऐ वा-ए-तल्ख़-कामी-ए-रोज़-ए-बद-फिराक़
नासेह ने जान-ए-ग़म-ज़दा खाई तमाम शब
अज़-बस यक़ीन-ए-वादा-ए-दीदार-ए-ख़्वाब था
क्या ख़ुश हुए कि नींद न आई तमाम शब
इक आह-ए-दिल-नशीं से वो बुत मुन्फ़इल हुआ
वल्लाह क्या नदामत उठाई तमाम शब
लगते ही आँख देख लिया जल्वा-ए-निहाँ
पेश-ए-नज़र थी शान-ए-ख़ुदाई तमाम शब

ग़ज़ल
क्या क्या अजल ने जान चुराई तमाम शब
इस्माइल मेरठी