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क्या ख़ूब ये अना है कि कश्कोल तोड़ कर | शाही शायरी
kya KHub ye ana hai ki kashkol toD kar

ग़ज़ल

क्या ख़ूब ये अना है कि कश्कोल तोड़ कर

लियाक़त अली आसिम

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क्या ख़ूब ये अना है कि कश्कोल तोड़ कर
अब तक खड़े हुए हैं वहीं हाथ जोड़ कर

मर ही न जाए ज़ब्त-ए-फ़ुग़ाँ से कहीं ये शहर
सीने से इस के आह निकालो झिंझोड़ कर

सुन्नत है कोई हिजरत-ए-सानी भला बताओ
जाता है कोई अपने मदीने को छोड़ कर

इस के अलावा कोई हमारा नहीं यहाँ
जाओ कोई ख़ुदा को बुला लाओ दौड़ कर

'आसिम' ये दुख तो झेलने पड़ते हैं इश्क़ में
चादर न हो तो सोते नहीं ख़ाक ओढ़ कर