क्या करूँ रंज गवारा न ख़ुशी रास मुझे
जीने देगी न मिरी शिद्दत-ए-एहसास मुझे
मैं किसी बज़्म के क़ाबिल न रहा तेरे बा'द
हँस पड़ा हूँ तो हुआ जुर्म का एहसास मुझे
हम ने इक दूसरे को पुरसा-ए-फ़ुर्क़त न दिया
मेरी ख़ातिर थी तुझे और तिरा पास मुझे
एक ठहरा हुआ दरिया है मिरी आँखों में
जाने किस घाट पे मारेगी तिरी प्यास मुझे
जैसे पहलू-ए-तरब में कोई नश्तर रख दे
आज तक याद है तेरी निगह-ए-यास मुझे
रेज़ा रेज़ा हुआ जाता है मिरा संग-ए-वजूद
यूँ सदा दे न पस-ए-पर्दा-ए-अन्फ़ास मुझे
शाख़ से बर्ग-ए-चकीदा का तक़ाज़ा जैसे
कुछ इसी तरह अभी तक है तिरी आस मुझे
रूह के दश्त में इक हू का समाँ है ऐ 'शाज़'
दे गया कौन भरे शहर में बन-बास मुझे
ग़ज़ल
क्या करूँ रंज गवारा न ख़ुशी रास मुझे
शाज़ तमकनत