क्या कहूँ कैसे इज़्तिरार में हूँ
मैं धुआँ हो के भी हिसार में हूँ
अब मुझे बोलना नहीं पड़ता
अब मैं हर शख़्स की पुकार में हूँ
जिस के आगे है आईना दीवार
मैं भी किरनों की उस क़तार में हूँ
आहटों का असर नहीं मुझ पर
जाने मैं किस के इंतिज़ार में हूँ
पर्दा-पोशी तिरी मुझी से है
तेरे आँचल के तार तार में हूँ
तंग लगती है अब वो आँख मुझे
दफ़्न जैसे किसी मज़ार में हूँ
मुझे में इक ज़लज़ला सा है 'शाहिद'
मैं कई दिन से इंतिशार में हूँ
ग़ज़ल
क्या कहूँ कैसे इज़्तिरार में हूँ
शाहिद ज़की