क्या कहीं दुनिया में हम इंसान या हैवान थे
ख़ाक थे क्या थे ग़रज़ इक आन के मेहमान थे
कर रहे थे अपना क़ब्ज़ा ग़ैर की इम्लाक पर
ग़ौर से देखा तो हम भी सख़्त बे-ईमान थे
और की चीज़ें दबा रखना बड़ी समझी थी अक़्ल
छीन लीं जब उस ने जब जाना कि हम नादान थे
एक दिन इक उस्तुख़्वाँ ऊपर पड़ा मेरा जो पाँव
क्या कहूँ उस दम मुझे ग़फ़लत में क्या क्या ध्यान थे
पाँव पड़ते ही ग़रज़ उस उस्तुख़्वाँ ने आह की
और कहा ग़ाफ़िल कभी तो हम भी साहब जान थे
दस्त-ओ-पा ज़ानू सर-ओ-गर्दन शिकम पुश्त-ओ-कमर
देखने को आँखें और सुनने की ख़ातिर कान थे
अब्रू-ओ-बीनी जबीं नक़्श-ओ-निगार-ओ-ख़ाल-ओ-ख़त
लअ'ल-ओ-मरवारीद से बेहतर लब-ओ-दंदान थे
रात को सोने को क्या क्या नर्म-ओ-नाज़ुक थे पलंग
बैठने को दिन के क्या क्या कोठे और दालान थे
खुल रहा था रू-ब-रू जन्नत के गुलशन का चमन
नाज़नीन महबूब गोया हूर और ग़िलमान थे
लग रहा था दिल कई चंचल परी-ज़ादों के साथ
कुछ किसी से अहद थे और कुछ कहीं पैमान थे
गुल-बदन और गुल-एज़ारों के किनारो बोस से
कुछ निकाली थी हवस कुछ और भी अरमान थे
मच रहे थे चहचहे और उड़ रहे थे क़हक़हे
साक़ी-ओ-साग़र सुराही फूल इत्र-ओ-पान थे
एक ही चक्कर दिया ऐसा अजल ने आन कर
जो न हम थे और न वो सब ऐश के सामान थे
ऐसी बेदर्दी से हम पर पाँव मत रख ऐ 'नज़ीर'
ओ मियाँ तेरी तरह हम भी कभी इंसान थे
ग़ज़ल
क्या कहीं दुनिया में हम इंसान या हैवान थे
नज़ीर अकबराबादी