क्या हुए बाद-ए-बयाबाँ के पुकारे हुए लोग
चाक-दर-चाक गरेबाँ को सँवारे हुए लोग
ख़ूँ हुआ दिल कि पशेमान-ए-सदाक़त है वफ़ा
ख़ुश हुआ जी कि चलो आज तुम्हारे हुए लोग
ये भी क्या रंग है ऐ नर्गिस-ए-ख़्वाब-आलूदा
शहर में सब तिरे जादू के हैं मारे हुए लोग
ख़त्त-ए-माज़ूली-ए-अरबाब-ए-सितम खींच गए
ये रसन-बस्ता सलीबों से उतारे हुए लोग
वक़्त ही वो ख़त-ए-फ़ासिल है कि ऐ हम-नफ़सो
दूर है मौज-ए-बला और किनारे हुए लोग
ऐ हरीफ़ान-ए-ग़म-ए-गर्दिश-ए-अय्याम आओ
एक ही ग़ोल के हम लोग हैं हारे हुए लोग
उन को ऐ नर्म हवा ख़्वाब-ए-जुनूँ से न जगा
रात मय-ख़ाने की आए हैं गुज़ारे हुए लोग
ग़ज़ल
क्या हुए बाद-ए-बयाबाँ के पुकारे हुए लोग
अज़ीज़ हामिद मदनी