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क्या ग़रज़ लाख ख़ुदाई में हों दौलत वाले | शाही शायरी
kya gharaz lakh KHudai mein hon daulat wale

ग़ज़ल

क्या ग़रज़ लाख ख़ुदाई में हों दौलत वाले

शेख़ इब्राहीम ज़ौक़

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क्या ग़रज़ लाख ख़ुदाई में हों दौलत वाले
उन का बंदा हूँ जो बंदे हैं मोहब्बत वाले

चाहें गर चारा जराहत का मोहब्बत वाले
बेचें अल्मास ओ नमक संग-ए-जराहत वाले

गए जन्नत में अगर सोज़-ए-मोहब्बत वाले
तो ये जानो रहे दोज़ख़ ही में जन्नत वाले

साक़िया हों जो सुबूही की न आदत वाले
सुब्ह-ए-महशर को भी उट्ठें न तिरे मतवाले

दुख़्तर-ए-रज़ को नहीं छेड़ते हैं मतवाले
हज़र उस फ़ाहिशा से करते हैं हुरमत वाले

रहे जूँ शीशा-ए-साअ'त वो मुकद्दर दोनों
कभी मिल भी गए दो दिल जो कुदूरत वाले

किस मरज़ की हैं दवा ये लब-ए-जाँ-बख़्श तिरे
जाँ-ब-लब हैं तिरे आज़ार-ए-मोहब्बत वाले

हिर्स के फैलते हैं पाँव ब-क़द्र-ए-वुसअत
तंग ही रहते हैं दुनिया में फ़राग़त वाले

हाए रे हसरत-ए-दीदार मिरी हाए को भी
लिखते हैं हा-ए-दो-चश्मी से किताबत वाले

नहीं जुज़ शम्अ' मुजाविर मिरी बालीन-ए-मज़ार
नहीं जुज़ कसरत-ए-परवाना ज़ियारत वाले

न शिकायत है करम की न सितम की ख़्वाहिश
देख तो हम भी हैं क्या सब्र ओ क़नाअ'त वाले

क्या तमाशा है कि मिस्ल-ए-मह-ए-नौ अपना फ़रोग़
जानते अपनी हिक़ारत को हैं शोहरत वाले

दिल से कुछ कहता हूँ मैं मुझ से है कुछ कहता दिल
दोनों इक हाल में हैं रंज ओ मुसीबत वाले

तू गर आ जाए तो ऐ दर्द-ए-मोहब्बत की दवा
मिरे हमदर्द हों बेदर्द फ़ज़ीहत वाले

छोड़ देते हैं क़लम जूँ क़लम-ए-आतिश-बाज़
मिरी शरह-ए-तपिश-ए-दिल की किताबत वाले

कभी अफ़्सोस है आता कभी रोना आता
दिल-ए-बीमार के हैं दो ही अयादत वाले

तू मिरे हाल से ग़ाफ़िल है पर ऐ ग़फ़लत-केश
तेरे अंदाज़-ए-तग़ाफ़ुल नहीं ग़फ़लत वाले

हम ने देखा है जो उस बुत में नहीं कह सकते
कि मुबादा कहीं सुन पाएँ शरीअ'त वाले

नाज़ है गुल को नज़ाकत पे चमन में ऐ 'ज़ौक़'
उस ने देखे ही नहीं नाज़-ओ-नज़ाकत वाले