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क्या ग़म जो फ़लक से कोई उतरा न सर-ए-ख़ाक | शाही शायरी
kya gham jo falak se koi utra na sar-e-KHak

ग़ज़ल

क्या ग़म जो फ़लक से कोई उतरा न सर-ए-ख़ाक

मुज़फ्फर अली सय्यद

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क्या ग़म जो फ़लक से कोई उतरा न सर-ए-ख़ाक
जुज़ ख़ाक नहीं कोई यहाँ चारा-गर-ए-ख़ाक

मिलती है शराबों की जगह गर्द-ए-बयाबाँ
मय-ख़ाने को जाते हैं तो खुलता है दर-ए-ख़ाक

सहरा को गुलिस्तान बड़े शौक़ से कह लो
या'नी शजर-ए-ख़ाक से तोड़ो समर-ए-ख़ाक

दरमान-ए-मोहब्बत है निशान-ए-कफ़-ए-पा भी
आँखों से लगा कर कभी देखो असर-ए-ख़ाक

आग़ोश-ए-लहद पहलू-ए-मादर से सिवा है
किस ख़ौफ़ से लर्ज़ां है तू ऐ बे-ख़बर-ए-ख़ाक

बे-मक़्सदी-ए-दहर का मज़हर है तसाहुल
करने को न हो काम तो इंसान करे ख़ाक

लालच की नज़र कौन किसी शख़्स को देखे
आँखों के वरे ख़ाक है आँखों के परे ख़ाक

है कौन जो फूलों की तमन्ना नहीं रखता
इक 'सय्यद'-ए-दीवाना कि दामन में भरे ख़ाक