क्या बताएँ क्या कल शब आख़िरी पहर देखा
कार-गाह-ए-गर्दूं पर चाँद का सफ़र देखा
जल्वा-गाह-ए-हस्ती में हुस्न जल्वा-गर देखा
हाए हम-नफ़स मत पूछ कब कहाँ किधर देखा
आह वो शब-ए-पुर-नम उफ़ वो नूर की महफ़िल
दरमियाँ सितारों के जल्वा-ए-क़मर देखा
उस जमाल-ए-उर्यां को सिर्फ़ इक नज़र देखा
फिर वही नज़र आया जब जहाँ जिधर देखा
हाए ऐ मुजस्सम हुस्न रश्क-ए-नूर-ओ-ताबानी
तू ने मेरे ख़िर्मन को ख़ूब फूँक कर देखा
शब ढली तो ऐ 'सालिम' मह नशेब में उतरा
इक चकोर को देखा और ब-चश्म-ए-तर देखा

ग़ज़ल
क्या बताएँ क्या कल शब आख़िरी पहर देखा
फ़रहान सालिम