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कू-ए-क़ातिल है मगर जाने को जी चाहे है | शाही शायरी
ku-e-qatil hai magar jaane ko ji chahe hai

ग़ज़ल

कू-ए-क़ातिल है मगर जाने को जी चाहे है

कलीम आजिज़

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कू-ए-क़ातिल है मगर जाने को जी चाहे है
अब तो कुछ फ़ैसला कर जाने को जी चाहे है

लोग अपने दर-ओ-दीवार से होशियार रहें
आज दीवाने का घर जाने को जी चाहे है

दर्द ऐसा है कि जी चाहे है ज़िंदा रहिए
ज़िंदगी ऐसी कि मर जाने को जी चाहे है

दिल को ज़ख़्मों के सिवा कुछ न दिया फूलों ने
अब तो काँटों में उतर जाने को जी चाहे है

छाँव वा'दों की है बस धोका ही धोका ऐ दिल
मत ठहर गरचे ठहर जाने को जी चाहे है

ज़िंदगी में है वो उलझन कि परेशाँ हो कर
ज़ुल्फ़ की तरह बिखर जाने को जी चाहे है

क़त्ल करने की अदा भी हसीं क़ातिल भी हसीं
न भी मरना हो तो मर जाने को जी चाहे है

जी ये चाहे है कि पूछूँ कभी उन ज़ुल्फ़ों से
क्या तुम्हारा भी सँवर जाने को जी चाहे है

रसन-ओ-दार इधर काकुल-ओ-रुख़्सार उधर
दिल बता तेरा किधर जाने को जी चाहे है