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कू-ए-हरम से निकली है कू-ए-बुताँ की राह | शाही शायरी
ku-e-haram se nikli hai ku-e-butan ki rah

ग़ज़ल

कू-ए-हरम से निकली है कू-ए-बुताँ की राह

जाफ़र ताहिर

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कू-ए-हरम से निकली है कू-ए-बुताँ की राह
हाए कहाँ पे आ के मिली है कहाँ की राह

सद-आसमाँ-ब-दामन-ओ-सद-कहकशाँ-ब-दोश
बाम-ए-बुलंद-ए-यार तिरे आस्ताँ की राह

मुल्क-ए-अदम में क़ाफ़िला-ए-उम्र जा बसा
हम देखते ही रह गए उस बद-गुमाँ की राह

लुटता रहा है ज़ौक़-ए-नज़र गाम गाम पर
अब क्या रहा है पास जो हम लें वहाँ की राह

ऐ ज़ुल्फ़ ख़म-ब-ख़म तुझे अपना ही वास्ता
हमवार होने पाए न उम्र-ए-रवाँ की राह

गुल-हा-ए-रंग रंग हैं अफ़्कार-ए-नौ-ब-नौ
ये रहगुज़ार-ए-शेर है किस गुल्सिताँ की राह

'ताहिर' ये मंज़िलें ये मक़ामात ये हरम
अल्लाह रे ये राह ये कू-ए-बुताँ की राह