कुशादा दस्त-ए-करम जब वो बे-नियाज़ करे
नियाज़-मंद न क्यूँ आजिज़ी पे नाज़ करे
बिठा के अर्श पे रक्खा है तू ने ऐ वाइज़
ख़ुदा वो क्या है जो बंदों से एहतिराज़ करे
मिरी निगाह में वो रिंद ही नहीं साक़ी
जो होशियारी ओ मस्ती में इम्तियाज़ करे
मुदाम गोश-ब-दिल रह ये साज़ है ऐसा
जो हो शिकस्ता तो पैदा नवा-ए-राज़ करे
कोई ये पूछे कि वाइज़ का क्या बिगड़ता है
जो बे-अमल पे भी रहमत वो बे-नियाज़ करे
सुख़न में सोज़ इलाही कहाँ से आता है
ये चीज़ वो है कि पत्थर को भी गुदाज़ करे
तमीज़-ए-लाला-ओ-गुल से है नाला-ए-बुलबुल
जहाँ में वा न कोई चश्म-ए-इम्तियाज़ करे
ग़ुरूर-ए-ज़ोहद ने सिखला दिया है वाइज़ को
कि बंदगान-ए-ख़ुदा पर ज़बाँ दराज़ करे
हवा हो ऐसी कि हिन्दोस्ताँ से ऐ 'इक़बाल'
उड़ा के मुझ को ग़ुबार-ए-रह-ए-हिजाज़ करे
ग़ज़ल
कुशादा दस्त-ए-करम जब वो बे-नियाज़ करे
अल्लामा इक़बाल