कुंज-ए-क़फ़स से पहले घर अपना कहाँ न था
आए यहाँ तो हौसला-ए-आशियाँ न था
तुझ को समझ के ख़्वाब में पहुँचा मैं जिस जगह
देखा जो आँख खोल के तो कुछ वहाँ न था
इक इक क़दम पे अब तो क़यामत की धूम है
आगे तो ये चलन कभी ऐ जान-ए-जाँ न था
ठहरी जो वस्ल की तो हुई सुब्ह शाम से
बुत मेहरबाँ हुए तो ख़ुदा मेहरबाँ न था
क्यूँकर क़सम पे आज मुझे ए'तिबार आए
किस दिन ख़ुदा तुम्हारे मिरे दरमियाँ न था
तोड़ा जो फूल बुलबुल-ए-शैदा के सामने
क्या तेरे दिल में दर्द कुछ ऐ बाग़बाँ न था
ग़ज़ल
कुंज-ए-क़फ़स से पहले घर अपना कहाँ न था
लाला माधव राम जौहर