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कुंज-ए-इज़्ज़त से उठो सुब्ह-ए-बहाराँ देखो | शाही शायरी
kunj-e-izzat se uTho subh-e-bahaaran dekho

ग़ज़ल

कुंज-ए-इज़्ज़त से उठो सुब्ह-ए-बहाराँ देखो

रज़ी तिर्मिज़ी

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कुंज-ए-इज़्ज़त से उठो सुब्ह-ए-बहाराँ देखो
दोस्तो नग़्मागरो रक़्स-ए-ग़ज़ालाँ देखो

मिट गया राह-गुज़ारों से हर इक नक़्श-ए-ख़िज़ाँ
वरक़-ए-गुल पे लिखे अब नए उनवाँ देखो

मुतरिबाँ बहर-ए-क़दम-बोसी-ए-शीरीं-सुख़नाँ
महफ़िल-ए-गुल में चलो जश्न-ए-बहाराँ देखो

मुज़्दा फिर ख़ाक-ए-ख़िज़ाँ-रंग की क़िस्मत जागी
आ गया झूम के अब्र-ए-गुहर-अफ़्शाँ देखो

हम-नवा हो के मिरे तुम भी ग़ज़ल-ख़्वाँ हो जाओ
जो लब-ए-जू-ए-रवाँ सर्व-ख़िरामाँ देखो

ये जुलूस-ए-गुल-ओ-रैहाँ है कहाँ नारा-ज़नाँ
उठ के दरवाज़े से बाहर तो मिरी जाँ देखो