EN اردو
कुफ़्र मोमिन है न करना दिलबराँ से इख़्तिलात | शाही शायरी
kufr momin hai na karna dil-baran se iKHtilat

ग़ज़ल

कुफ़्र मोमिन है न करना दिलबराँ से इख़्तिलात

वली उज़लत

;

कुफ़्र मोमिन है न करना दिलबराँ से इख़्तिलात
कर लिया काबे ने भी कै दिन बुताँ से इख़्तिलात

बंदा उस बुलबुल का हूँ जो बू-ए-गुल के वास्ते
गर्म रक्खे हाए हर ख़ार-ए-ख़िज़ाँ से इख़्तिलात

ख़ाकसारों की है उल्फ़त रहरवान-ए-इश्क़ से
जैसे गर्द-ए-राह का है कारवाँ से इख़्तिलात

क्यूँ न होवे पुख़्ता ओ बर-जस्ता रौशन दिल का शेर
दूद ओ शोले सा सुख़न को है ज़बाँ से इख़्तिलात

दिल-शिकन के वास्ते दस्त-ए-दुआ 'उज़लत' उठाए
जैसे ग़ुंचे का नसीम-ए-गुल्सिताँ से इख़्तिलात