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कुछ तबीअत आज-कल पाता हूँ घबराई हुई | शाही शायरी
kuchh tabiat aaj-kal pata hun ghabrai hui

ग़ज़ल

कुछ तबीअत आज-कल पाता हूँ घबराई हुई

परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़

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कुछ तबीअत आज-कल पाता हूँ घबराई हुई
शहर भर में है उदासी हर तरफ़ छाई हुई

हाए-रे ग़ारत-गर-ए-सब्र-ओ-शकेबाई हुई
वो तिरी तिरछी नज़र वो आँख शर्माई हुई

ऐ सबा चलती है क्यूँ इस दर्जा इतराई हुई
क्या नहीं है तू वही उस गुल की ठुकराई हुई

वस्ल में अच्छी तरह जब बादा-पैमाई हुई
उड़ गई काफ़ूर बन बन कर हया आई हुई

शब को जब अबरू-ओ-मिज़्गाँ की सफ़-आराई हुई
शोख़ियों में दब गई शर्म-ओ-हया आई हुई

हाए मेरी बे-क़रारी और उन का इज़्तिराब
और चलते वक़्त की बातें वो घबराई हुई

क़ब्र तक पहुँचा गए सारे अज़ीज़-ओ-अक़रिबा
आगे आगे फिर रफ़ीक़-ए-राह तन्हाई हुई

हाँ तुम्हीं पर जान देता हूँ तुम्हीं पर हूँ निसार
हाँ तुम्हीं पर है तबीअत टूट कर आई हुई

टुकड़े टुकड़े हैं जिगर के शीशा-ए-दिल चूर-चूर
ये क़यामत है तुम्हारी चाल की ढाई हुई

जिस में ताक़त है न हरकत है न ख़्वाहिश है न जाँ
दिल नहीं इक लाश है सीने में दफनाई हुई

बैठते ही बैठते महफ़िल में बे-ख़ुद हो गया
देखते ही देखते रुख़्सत तवानाई हुई

ख़ूब रोने दो कि ये रोके से रुक सकता नहीं
मेरे दिल पर है अभी ग़म की घटा छाई हुई

आबदीदा हो के वो आपस में कहना अलविदा'अ
उस की कम मेरी सिवा आवाज़ भर्राई हुई

मिन्नतें करता हूँ दर-गुज़रो ख़ुदारा बख़्श दो
अब तो नादानी हुई या मुझ से दानाई हुई

शिकवा-ए-वादा-ख़िलाफ़ी का मिला अच्छा जवाब
पेशगी रक्खी थी इक उम्मीद बर आई हुई

हूर पर मेरी तबीअत आए क्या मक़्दूर है
तौबा तौबा ये भी तेरी तरह हरजाई हुई

ख़ुद ही सोचो देखने वालों का इस में क्या क़ुसूर
जब तमाशा तुम हुए ख़िल्क़त तमाशाई हुई

रोते रोते ठहर जाता हूँ तिरी सर की क़सम
याद आ जाती है जब वो बात समझाई हुई

दे के दिल ग़ुस्से में वापस उन को पछताना पड़ा
क्या रक़म जाती रही है हाथ से आई हुई

ख़ुश-नसीबी उस जगह की तू जहाँ रक्खे क़दम
रेल भी फिरती है स्टेशन पर इतराई हुई

जब कहा उस ने कि मरता हूँ तो कोसा इस तरह
तुझ को आए या-इलाही ग़ैर की आई हुई

रब्त बढ़ने पर खुला करता है कुछ अच्छा बुरा
इस से किया होता है गर रस्मी शनासाई हुई

इश्क़-बाज़ी और शय है फ़िस्क़ है कुछ और चीज़
नेक-नामी को न कह 'परवीं' कि रुस्वाई हुई