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कुछ तअल्लुक़ भी नहीं रस्म-ए-जहाँ से आगे | शाही शायरी
kuchh talluq bhi nahin rasm-e-jahan se aage

ग़ज़ल

कुछ तअल्लुक़ भी नहीं रस्म-ए-जहाँ से आगे

कबीर अजमल

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कुछ तअल्लुक़ भी नहीं रस्म-ए-जहाँ से आगे
उस से रिश्ता भी रहा वहम ओ गुमाँ से आगे

ले के पहुँची है कहाँ सीम-बदन की ख़्वाहिश
कुछ इलाक़ा न रहा सूद-ओ-ज़ियाँ से आगे

ख़्वाब-ज़ारों में वो चेहरा है नुमू की सूरत
और इक फ़स्ल उगी रिश्ता-ए-जाँ से आगे

कब तलक अपनी ही साँसों का चुकाता रहूँ क़र्ज़
ऐ मिरी आँख कोई ख़्वाब धुआँ से आगे

शाख़-ए-एहसास पे खिलते रहे ज़ख़्मों के गुलाब
किस ने महसूस किया शोरिश-ए-जाँ से आगे

जब भी बोल उट्ठेंगे तन्हाई में लिक्खे हुए हर्फ़
फैलते जाएँगे नाक़ूस ओ अज़ाँ से आगे

जिस की किरनों से उजाला है लहू में 'अजमल'
जल रहा है वो दिया काहकशाँ से आगे