कुछ सुकूँ पाऊँ जो इस सहन-ए-मकाँ से छूटूँ
फिर नया एक सफ़र हो मैं जहाँ से छूटूँ
सारे एहसास से हर सूद-ओ-ज़ियाँ से छूटूँ
हो के ख़ामोश गुनाहान-ए-बयाँ से छूटूँ
तुंद-ख़ू ताज़ी-ए-बे-बाक ख़िरामाँ की क़सम
काश रफ़्तार-ओ-रम-ओ-रख़्श-ए-रवाँ से छूटूँ
मुज़्महिल हो के ठहरने नहीं देती सुरअ'त
काश आज़ाद हो तौसन कि इनाँ से छूटूँ
ज़िक्र कुछ दिल का न कुछ बात तमन्नाओं की
ख़ुश्क आँखें हों मैं इज़ा-ए-फ़ुग़ाँ से छूटूँ
रक़्स हो आतिश-ए-सय्याल का और ख़ाक हूँ मैं
गर्दिश-ए-शाम-ओ-सहर दहर-ओ-ज़माँ से छूटूँ
ताएर-ए-रूह हर इक गोशा-ए-जाँ देखता है
जिस्म से जान से किस दर से कहाँ से छूटूँ
छूटूँ 'फ़रहत' से अज़िय्यत से सुकूँ से ग़म से
ना-तवानी से सही ताब-ओ-तवाँ से छूटूँ

ग़ज़ल
कुछ सुकूँ पाऊँ जो इस सहन-ए-मकाँ से छूटूँ
फ़रहत नादिर रिज़्वी