कुछ सरगुज़िश्त कह न सके रू-ब-रू क़लम
गर्दिश-नसीब रोज़-ए-अज़ल से है तू क़लम
काग़ज़ का ताओ क्या है तिरे रू-ब-रू क़लम
ऐसा ही यानी पीर का नेज़ा है तू क़लम
ज़ालिम नहीं तू हर्फ़-ए-मोहब्बत से आश्ना
मश्क़-ए-सितम से शर्म कर ऐ जंग-जू क़लम
क्या ख़ामा लिख सके सिफ़त-ए-ज़ुल्फ़-ए-मुश्क-बार
शोरे के भी हुए हैं कहीं मुश्क-बू क़लम
नामा पर-ए-हुमा हो मिरा ऐ शह-ए-बुताँ
लिखो गर उस्तुखाँ से बना कर कभू क़लम
क़ातिल को मैं ने ख़त नहीं शंजर्फ़ से लिखा
किस वज्ह से हुआ है तू अब सुर्ख़-रू क़लम
यानी कि उस के इश्क़ में इस दम मिला है याँ
मुँह से लहू लगा के शहीदों में तू क़लम
लिख और इक ग़ज़ल कि शगुफ़्ता ज़मीन है
ले कर 'नसीर' अब ये लब-ए-आबजू क़लम
ग़ज़ल
कुछ सरगुज़िश्त कह न सके रू-ब-रू क़लम
शाह नसीर