कुछ साए से हर लहज़ा किसी सम्त रवाँ हैं
इस शहर में वर्ना न मकीं हैं न मकाँ हैं
हम ख़ुद से जुदा हौके तुझे ढूँडने निकले
बिखरे हैं अब ऐसे कि यहाँ हैं न वहाँ हैं
जाती हैं तिरे घर को सभी शहर की राहें
लगता है कि सब लोग तिरी सम्त रवाँ हैं
ऐ मौजा-ए-आवारा कभी हम से भी टकरा
इक उम्र से हम भी सर-ए-साहिल निगराँ हैं
सिमटे थे कभी हम तो समाए सर-ए-मिज़्गाँ
फैले हैं अब ऐसे कि कराँ ता-ब-कराँ हैं
तू ढूँड हमें वक़्त की दीवार के उस पार
हम दूर बहुत दूर की मंज़िल का निशाँ हैं
इक दिन तिरे आँचल की हवा बन के उड़े थे
उस दिन से ज़माने की निगाहों पे गराँ हैं
तोड़ो न हमारे लिए आवाज़ का आहंग
हम लोग तो इक डूबते लम्हे की फ़ुग़ाँ हैं
वो जिन से फ़रोज़ाँ हुआ इक आलम-ए-इम्काँ
वो चाँद-सिफ़त लोग 'रशीद' आज कहाँ हैं

ग़ज़ल
कुछ साए से हर लहज़ा किसी सम्त रवाँ हैं
रशीद क़ैसरानी