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कुछ नहीं हासिल सिपर को चीर को या तलवार तोड़ | शाही शायरी
kuchh nahin hasil sipar ko chir ko ya talwar toD

ग़ज़ल

कुछ नहीं हासिल सिपर को चीर को या तलवार तोड़

मुनीर शिकोहाबादी

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कुछ नहीं हासिल सिपर को चीर को या तलवार तोड़
है अगर ताक़त तो मेरे आँसुओं का तार तोड़

तेरी चश्म ओ ज़ुल्फ़ से सौदा-ए-हम-चश्मी किया
ऐ सनम बादाम-ए-चश्म-ए-आहू-ए-तातार तोड़

ज़ुल्फ़ में मोती पिरोना मेरे हक़ में ज़हर है
आज ऐ मश्शाता-ए-दंदाँ दहान-ए-यार तोड़

सिलसिला गब्र-ओ-मुसलमाँ की अदावत का मिटा
ऐ परी बे-पर्दा हो कर सुब्हा-ओ-ज़ुन्नार तोड़

किब्र भी है शिर्क ऐ ज़ाहिद मुवह्हिद के हुज़ूर
ले के तेशा ख़ाकसारी का बुत-ए-पिंदार तोड़

आब-ए-गौहर से बदन की आब होती है ख़राब
बोझ है ऐ नाज़नीं ये मोतियों का हार तोड़

शर्म कब तक ऐ परी ला हाथ कर इक़रार-ए-वस्ल
अपने दिल को सख़्त कर के रिश्ता-ए-इंकार तोड़

सब्र कब तक राह पैदा हो कि ऐ दिल जान जाए
एक टक्कर मार कर सर फोड़ या दीवार तोड़

ऐ ज़ुलेख़ा नक़्द-ए-जाँ हम दें लगा तू गंज-ए-ज़र
क़ीमत-ए-यूसुफ़ का हो जाए सर-ए-बाज़ार तोड़

वस्फ़-ए-चश्म-ए-यार लिखने के लिए ऐ दस्त-ए-शौक़
चल किसी गुलशन में शाख़-ए-नर्गिस-ए-बीमार तोड़

चढ़ के कोठे पर दिखा दे अपने अबरू में शिकन
ऐ परी-पैकर हलाक-ए-चर्ख़ की तलवार तोड़

आइना है माने-ए-नज़्ज़ारा-ए-हुस्न-ओ-जमाल
हो सके तो सद्द-ए-अस्कन्दर को ऐ दिलदार तोड़

माने-ए-मस्ती को बद-मस्ती दिखाना चाहिए
मोहतसिब का शीशा-ए-दिल ऐ बुत-ए-मय-ख़्वार तोड़

हुस्न-ए-पेशानी से क़स्र-ए-चर्ख़ को बर्बाद कर
लौह-ए-क़ुरआँ से तिलिस्म-ए-गुम्बद-ए-दव्वार तोड़

नाम को ऐ दिल न रख अस्बाब-ए-इस्लाह-ए-जुनूँ
वादी-ए-वहशत में चल कर नश्तर-ए-हर-ख़ार तोड़

आँखें फोड़ उस की जो देखे बे-इजाज़त मुँह तिरा
शौक़ से ऐ मस्त जाम-ए-शर्बत-ए-दीदार तोड़

इश्क़-ए-ज़ुल्फ़-ए-अम्बर-अफ़्शाँ का न टूटे सिलसिला
पाँव की ज़ंजीर ऐ दस्त-ए-जुनूँ सौ बार तोड़

साइल-ए-बोसा हैं उन को देख चश्म-ए-क़हर से
आँख के ढेलों से ऐ बुत ख़ातिर-ए-अग़्यार तोड़

हुस्न-ए-ग़म में एक मुद्दत से मुक़य्यद है 'मुनीर'
फ़िक्र-ए-दुनिया का हिसार ऐ हैदर-ए-कर्रार तोड़