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कुछ नए ख़्वाब हर इक फ़स्ल में पाले गए हैं | शाही शायरी
kuchh nae KHwab har ek fasl mein pale gae hain

ग़ज़ल

कुछ नए ख़्वाब हर इक फ़स्ल में पाले गए हैं

सलीम फ़राज़

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कुछ नए ख़्वाब हर इक फ़स्ल में पाले गए हैं
हम इसी जुर्म में बस्ती से निकाले गए हैं

अभी ज़ंजीर-ए-जुनूँ पाँव में डाले गए हैं
देख किस सम्त तिरे चाहने वाले गए हैं

कौन इस शहर-ए-चराग़ाँ में अभी आया था
दूर तक उस के तआ'क़ुब में उजाले गए हैं

हाकिम-ए-वक़त के क़दमों पे सभी इब्न-उल-वक़्त
रख के दस्तार को सर अपना बचा ले गए हैं

तीरगी क्यूँ न मिरे ख़ाना-ए-हस्ती में रहे
वो सभी जलते चराग़ों को उठा ले गए हैं

क्या कहें गुज़रे हुए वक़्त के बारे में 'सलीम'
सख़त मुश्किल से दिल-ओ-जाँ ये सँभाले गए हैं