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कुछ इस तरह से गुज़ारी है ज़िंदगी मैं ने | शाही शायरी
kuchh is tarah se guzari hai zindagi maine

ग़ज़ल

कुछ इस तरह से गुज़ारी है ज़िंदगी मैं ने

रहमत इलाही बर्क़ आज़मी

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कुछ इस तरह से गुज़ारी है ज़िंदगी मैं ने
हर एक साँस को समझा है आख़िरी मैं ने

समझ गया वहीं राज़-ए-विसाल जब देखा
हबाब तेरा मआ'ल-ए-शिकस्तगी मैं ने

करिश्मा-ए-मय-ए-तौहीद ऐ तआ'ल-अल्लाह
सुरूर है मिरे साक़ी को और पी मैं ने

लगा के उन की मोहब्बत में जान की बाज़ी
तमाम दौलत-ए-कौनैन जीत ली मैं ने

किसी का राज़ समझता गया जहाँ तक भी
समझ में आया कि समझा न कुछ अभी मैं ने

अना ज़बाँ से न कहते न दार पर खिंचते
किया है क़हर ये मंसूर आप की मैं ने

है मावारा-ए-सुख़न 'बर्क़' गुफ़्तुगू मेरी
ख़मोश रह के भी अक्सर है बात की मैं ने