कुछ हर्फ़ ओ सुख़न पहले तो अख़बार में आया
फिर इश्क़ मिरा कूचा ओ बाज़ार में आया
अब आख़िर-ए-शब दर्द का भटका हुआ रहवार
आया भी तो शहर-ए-लब-ओ-रुख़्सार में आया
क्या नक़्श हुआ दिल के अंधेरे में नुमूदार
क्या रोज़न-ए-रौशन मिरी दीवार में आया
हैराँ हूँ कि फिर उस ने न की सब्र की ताकीद
बाज़ू जो मिरा बाज़ू-ए-दिलदार में आया
ये आइना-गुफ़्तार कोई और है मुझ में
सोचा भी न था मैं ने जो इज़हार में आया
हासिल न हुआ मुझ को वो महताब तो माबूद
क्या फ़र्क़ तिरे साबित ओ सय्यार में आया
ग़ज़ल
कुछ हर्फ़ ओ सुख़न पहले तो अख़बार में आया
इरफ़ान सिद्दीक़ी