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कुछ दिन तिरा ख़याल तिरी आरज़ू रही | शाही शायरी
kuchh din tera KHayal teri aarzu rahi

ग़ज़ल

कुछ दिन तिरा ख़याल तिरी आरज़ू रही

वाली आसी

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कुछ दिन तिरा ख़याल तिरी आरज़ू रही
फिर सारी उम्र अपनी हमें जुस्तुजू रही

क्या क्या न ख़्वाब जागती आँखों में थे मगर
ऐ दिल की लहर रात कहाँ जाने तू रही

जाओ फिर उन को जा के समुंदर में फेंक दो
अब सच्चे मोतियों की कहाँ आबरू रही

मुड़ मुड़ के बार बार पुकारा उसे मगर
आवाज़-ए-बाज़गश्त ही बस चार सू रही

हल्के से इक सुकूत के पर्दे के बावजूद
उस कम-सुख़न से रात बड़ी गुफ़्तुगू रही

मुँह मोड़ के वो हम से चला तो गया मगर
इस को भी उम्र भर ख़लिश-ए-लखनऊ रही

'वाली'! तुम्हें नवाज़ रहा है वो हर तरह
तुम को भी उस की फ़िक्र व-लेकिन कभू रही