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कुछ भी तो अपने पास नहीं जुज़-मता-ए-दिल | शाही शायरी
kuchh bhi to apne pas nahin juz-mata-e-dil

ग़ज़ल

कुछ भी तो अपने पास नहीं जुज़-मता-ए-दिल

इब्न-ए-सफ़ी

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कुछ भी तो अपने पास नहीं जुज़-मता-ए-दिल
क्या इस से बढ़ के और भी कोई है इम्तिहाँ

लिखने को लिख रहे हैं ग़ज़ब की कहानियाँ
लिक्खी न जा सकी मगर अपनी ही दास्ताँ

दिल से दिमाग़ ओ हल्क़ा-ए-इरफ़ाँ से दार तक
हम ख़ुद को ढूँडते हुए पहुँचे कहाँ कहाँ

उस बेवफ़ा पे बस नहीं चलता तो क्या हुआ
उड़ती रहेंगी अपने गरेबाँ की धज्जियाँ

हम ख़ुद ही करते रहते हैं फ़ित्नों की परवरिश
आती नहीं है कोई बला हम पे ना-गहाँ