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कुछ भी नहीं कहीं नहीं ख़्वाब के इख़्तियार में | शाही शायरी
kuchh bhi nahin kahin nahin KHwab ke iKHtiyar mein

ग़ज़ल

कुछ भी नहीं कहीं नहीं ख़्वाब के इख़्तियार में

इफ़्तिख़ार आरिफ़

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कुछ भी नहीं कहीं नहीं ख़्वाब के इख़्तियार में
रात गुज़ार दी गई सुब्ह के इंतिज़ार में

बाब-ए-अता के सामने अहल-ए-कमाल का हुजूम
जिन को था सर-कशी पे नाज़ वो भी इसी क़तार में

जैसे फ़साद-ए-ख़ून से जिल्द-ए-बदन पे दाग़-ए-बर्स
दिल की सियाहियाँ भी हैं दामन-ए-दाग़-दार में

वक़्त की ठोकरों में है उक़दा-कुशाइयों को ज़ो'म
कैसी उलझ रही है डोर नाख़ुन-ए-होश्यार में

आएगा आएगा वो दिन हो के रहेगा सब हिसाब
वक़्त भी इंतिज़ार में ख़ल्क़ भी इंतिज़ार में

जैसी लगी थी दिल में आग वैसी ग़ज़ल बनी नहीं
लफ़्ज़ ठहर नहीं सके दर्द की तेज़ धार में