EN اردو
कुछ भी नहीं है आलम-ए-ज़र्रात से आगे | शाही शायरी
kuchh bhi nahin hai aalam-e-zarraat se aage

ग़ज़ल

कुछ भी नहीं है आलम-ए-ज़र्रात से आगे

जमील मज़हरी

;

कुछ भी नहीं है आलम-ए-ज़र्रात से आगे
इक आलम-ए-हू आलम-ऐ-अस्वात से आगे

मिलते हैं समावात समावात से आगे
हर गाम हिजाबात हिजाबात से आगे

इस दहर में हम ख़ुद भी हैं मिंजुमला ख़ुराफ़ात
किस तरह नज़र जाए ख़ुराफ़ात से आगे

ऐ रात के मारो तुम्हें किस तरह बुझाऊँ
इक सुब्ह भी इक दिन भी है इस रात से आगे

इंसाँ हैं मगर बीच की मंज़िल में खड़े हैं
हैवान से पीछे हैं जमादात से आगे

जो कुछ है यहाँ वो है ख़राबात के अंदर
कुछ भी नहीं ऐ रिंद ख़राबात से आगे

क्या सोचते हो ज़ेहन में वो आ नहीं सकता
क्या सोचते हो है वो ख़यालात से आगे

होने को वो जैसा भी हो हम हैं तो वो होगा
ख़ामोशी ही ख़ामोशी है इस बात से आगे

समझेंगे वही ज़ेहन 'जमील' अपने सुख़न को
जाती है नज़र जिन की तबीआत से आगे