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कुछ बस ही न था वर्ना ये इल्ज़ाम न लेते | शाही शायरी
kuchh bas hi na tha warna ye ilzam na lete

ग़ज़ल

कुछ बस ही न था वर्ना ये इल्ज़ाम न लेते

फ़ानी बदायुनी

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कुछ बस ही न था वर्ना ये इल्ज़ाम न लेते
हम तुझ से छुपा कर भी तिरा नाम न लेते

नज़रें न बचाना थीं नज़र मुझ से मिला कर
पैग़ाम न देना था तो पैग़ाम न लेते

क्या उम्र में इक आह भी बख़्शी नहीं जाती
इक साँस भी क्या आप के नाकाम न लेते

अब मय में न वो कैफ़ न अब जाम में वो बात
ऐ काश तिरे हाथ से हम जाम न लेते

क़ाबू ही ग़म-ए-इश्क़ पे चलता नहीं वर्ना
एहसान-ए-ग़म-ए-गर्दिश-ए-अय्याम न लेते

हम हैं वो बला दोस्त कि गुलशन का तो क्या ज़िक्र
जन्नत भी बजाए क़फ़स ओ दाम न लेते

ख़ामोश भी रहते तो शिकायत ही ठहरती
दिल दे के कहाँ तक कोई इल्ज़ाम न लेते

अल्लाह रे मिरे दिल की नज़ाकत का तक़ाज़ा
तासीर-ए-मोहब्बत से भी हम काम न लेते

तेरी ही रज़ा और थी वर्ना तिरे बिस्मिल
तलवार के साए में भी आराम न लेते

इक जब्र है ये ज़िंदगी इश्क़ कि 'फ़ानी'
हम मुफ़्त भी ये ऐश-ए-ग़म-अंजाम न लेते