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कुछ बचा ले अभी आँसू मुझे रोने वाले | शाही शायरी
kuchh bacha le abhi aansu mujhe rone wale

ग़ज़ल

कुछ बचा ले अभी आँसू मुझे रोने वाले

ख़ावर जीलानी

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कुछ बचा ले अभी आँसू मुझे रोने वाले
सानेहे और भी हैं रू-नुमा होने वाले

वक़्त के घाट उतर कर नहीं वापस लौटे
दाग़ मल्बूस-ए-मह-ओ-महर के धोने वाले

दाएम आबाद रहे दार-ए-फ़ना के बासी
फ़िक्र में रूह-ए-बक़ायाब समोने वाले

थरथराती रहे अब ख़्वाह हमा-वक़्त ज़मीं
सो गए ख़ाक-ए-अबद ओढ़ के सोने वाले

जिस पे भी पाँव धरा मैं ने उसी नाव में
आए आसार नज़र ख़ुद को डुबोने वाले

अब लिए फिरता है क्या दामन-ए-सद-चाक अपना
क्या हुए अब वो तिरे सीने पिरोने वाले

जा निकलता है अचानक वहीं रस्ता मेरा
दर प-ए-पा हों जहाँ ख़ार चुभोने वाले

गर्द है हाथ में उन के मिरी किश्त-ए-ज़र-ख़ेज़
ख़ार-ओ-ख़स से जो अलावा नहीं बोने वाले

ये भी इक तुर्फ़ा तमाशा है कि हैं अँधियारे
रेशा-ए-शब में सितारों को पिरोने वाले

कर गए ख़ुश्क भरी झील तअस्सुफ़ के कँवल
सूख कर काँटा हुए रात भिगोने वाले

दे गया है जो हमें अहद-ए-मरासिम उस का
उस ख़ज़ाने को नहीं हम नहीं खोने वाले