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कुछ ऐसा उतरा मैं उस संग-दिल के शीशे में | शाही शायरी
kuchh aisa utra main us sang-dil ke shishe mein

ग़ज़ल

कुछ ऐसा उतरा मैं उस संग-दिल के शीशे में

मुज़फ़्फ़र वारसी

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कुछ ऐसा उतरा मैं उस संग-दिल के शीशे में
कि चंद साँस भी आए न अपने हिस्से में

वो एक ऐसे समुंदर के रूप में आया
कि उम्र कट गई जिस को उबूर करने में

मुझे ख़ुद अपनी तलब का नहीं है अंदाज़ा
ये काएनात भी थोड़ी है मेरे कासे में

मिली तो है मिरी तन्हाइयों को आज़ादी
जुड़ी हुई हैं कुछ आँखें मगर दरीचे में

ग़नीम भी कोई मुझ को नज़र नहीं आता
घिरा हुआ भी हूँ चारों तरफ़ से ख़तरे में

मिरा शुऊ'र भी शायद वो तिफ़्ल-ए-कम-सिन है
बिछड़ गया है जो गुमराहियों के मेले में

हुनर है शाइरी शतरंज शौक़ है मेरा
ये जाइदाद 'मुज़फ़्फ़र' मिली है विर्से में