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कुछ ऐसा था गुमरही का साया | शाही शायरी
kuchh aisa tha gumrahi ka saya

ग़ज़ल

कुछ ऐसा था गुमरही का साया

अब्दुल अज़ीज़ फ़ितरत

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कुछ ऐसा था गुमरही का साया
अपना ही पता न हम ने पाया

दिल किस के जमाल में हुआ गुम
अक्सर ये ख़याल ही न आया

हम तो तिरे ज़िक्र का हुए जुज़्व
तू ने हमें किस तरह भुलाया

ऐ दोस्त तिरी नज़र से मेरा
ऐवान-ए-निगाह जग मुस्काया

ख़ुर्शेद उसी को हम ने जाना
जो ज़र्रा ज़मीं पे मुस्कुराया

मक़्सूद थी ताज़गी चमन की
हम ने रग-ए-जाँ से ख़ूँ बहाया

उफ़्ताद है सब की अपनी अपनी
किस ने है किसी का ग़म बटाया

महरूमी-ए-जाविदाँ है और मैं
मैं ज़ौक़-ए-तलब से बाज़ आया

हर ग़म पे है मेरे नाम की महर
'फ़ितरत' कोई ग़म नहीं पराया