कुछ ऐसा था गुमरही का साया
अपना ही पता न हम ने पाया
दिल किस के जमाल में हुआ गुम
अक्सर ये ख़याल ही न आया
हम तो तिरे ज़िक्र का हुए जुज़्व
तू ने हमें किस तरह भुलाया
ऐ दोस्त तिरी नज़र से मेरा
ऐवान-ए-निगाह जग मुस्काया
ख़ुर्शेद उसी को हम ने जाना
जो ज़र्रा ज़मीं पे मुस्कुराया
मक़्सूद थी ताज़गी चमन की
हम ने रग-ए-जाँ से ख़ूँ बहाया
उफ़्ताद है सब की अपनी अपनी
किस ने है किसी का ग़म बटाया
महरूमी-ए-जाविदाँ है और मैं
मैं ज़ौक़-ए-तलब से बाज़ आया
हर ग़म पे है मेरे नाम की महर
'फ़ितरत' कोई ग़म नहीं पराया
ग़ज़ल
कुछ ऐसा था गुमरही का साया
अब्दुल अज़ीज़ फ़ितरत