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कुछ अब के बहारों का भी अंदाज़ नया है | शाही शायरी
kuchh ab ke bahaaron ka bhi andaz naya hai

ग़ज़ल

कुछ अब के बहारों का भी अंदाज़ नया है

फ़ारिग़ बुख़ारी

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कुछ अब के बहारों का भी अंदाज़ नया है
हर शाख़ पे ग़ुंचे की जगह ज़ख़्म खिला है

दो घूँट पिला दे कोई मय हो कि हलाहिल
वो तिश्ना-लबी है कि बदन टूट रहा है

उस रिंद-ए-सियह-मस्त का ईमान न पूछो
तिश्ना हो तो मख़्लूक़ है पी ले तो ख़ुदा है

किस बाम से आती है तिरी ज़ुल्फ़ की ख़ुशबू
दिल यादों के ज़ीने पे खड़ा सोच रहा है

कल उस को तराशोगे तो पूजेगा ज़माना
पत्थर की तरह आज जो राहों में पड़ा है

दीवानों को सौदा-ए-तलब ही नहीं वर्ना
हर सीने की धड़कन किसी मंज़िल की सदा है