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कोई ये ज़ाहिद से जा के कह दे कि रस्म उल्टी शबाब की है | शाही शायरी
koi ye zahid se ja ke kah de ki rasm ulTi shabab ki hai

ग़ज़ल

कोई ये ज़ाहिद से जा के कह दे कि रस्म उल्टी शबाब की है

कँवर महेंद्र सिंह बेदी सहर

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कोई ये ज़ाहिद से जा के कह दे कि रस्म उल्टी शबाब की है
सवाब में है गुनह की लज़्ज़त गुनह में लज़्ज़त सवाब की है

रुख़-ए-मुनव्वर पे दर-हक़ीक़त मिसाल ऐसी नक़ाब की है
मह-ए-दो-हफ़्ता के रू-ए-रौशन पे जैसे चादर सहाब की है

कुछ ऐसी तौबा-शिकन हर इक बात उस बुत-ए-ला-जवाब की है
है गेसुओं में घटा का आलम नज़र में मस्ती शराब की है

इन आँसुओं को गिला न समझो ये दिल से तंग आ के गिर रहे हैं
इसी ने रुस्वा किया है हर सू इसी ने मिट्टी ख़राब की है

यही वो कूज़ा है दिल कि रहते हैं बंद जिस में हज़ार दरिया
यही वो ज़र्रा है दर-हक़ीक़त कि जिस में ज़ौ आफ़्ताब की है

नक़ाब रू-ए-हसीं उठा कर न इस तरह हम को भूल जाओ
मुरादें दिल की भी पूरी कर दो अगर नज़र कामयाब की है

कहाँ की जन्नत किधर का दोज़ख़ किधर की दुनिया कहाँ का उक़्बा
ये सब फ़साना ये सब कहानी 'सहर' फ़क़त शैख़ ओ शबाब की है