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कोई वहशी चीज़ सी ज़ंजीर-ए-पा जैसे हवा | शाही शायरी
koi wahshi chiz si zanjir-e-pa jaise hawa

ग़ज़ल

कोई वहशी चीज़ सी ज़ंजीर-ए-पा जैसे हवा

इरफ़ान सिद्दीक़ी

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कोई वहशी चीज़ सी ज़ंजीर-ए-पा जैसे हवा
दूर तक लेकिन सफ़र का सिलसिला जैसे हवा

बंद कमरे में परागंदा ख़यालों की घुटन
और दरवाज़े पे इक आवाज़-ए-पा जैसे हवा

गिरती दीवारों के नीचे साए जैसे आदमी
तंग गलियों में फ़क़त अक्स-ए-हवा जैसे हवा

आसमाँ-ता-आसमाँ सुनसान सन्नाटे की झील
दायरा-दर-दायरा मेरी नवा जैसे हवा

दो लरज़ते हाथ जैसे साया फैलाए शजर
काँपते होंटों पे इक हर्फ़-ए-दुआ जैसे हवा

पानियों में डूबती जैसे रुतों की कश्तियाँ
साहिलों पर चीख़ती कोई सदा जैसे हवा

कितना ख़ाली है ये दामन जिस तरह दामान-ए-दश्त
कुछ न कुछ तो दे उसे मेरे ख़ुदा जैसे हवा