कोई वहशी चीज़ सी ज़ंजीर-ए-पा जैसे हवा
दूर तक लेकिन सफ़र का सिलसिला जैसे हवा
बंद कमरे में परागंदा ख़यालों की घुटन
और दरवाज़े पे इक आवाज़-ए-पा जैसे हवा
गिरती दीवारों के नीचे साए जैसे आदमी
तंग गलियों में फ़क़त अक्स-ए-हवा जैसे हवा
आसमाँ-ता-आसमाँ सुनसान सन्नाटे की झील
दायरा-दर-दायरा मेरी नवा जैसे हवा
दो लरज़ते हाथ जैसे साया फैलाए शजर
काँपते होंटों पे इक हर्फ़-ए-दुआ जैसे हवा
पानियों में डूबती जैसे रुतों की कश्तियाँ
साहिलों पर चीख़ती कोई सदा जैसे हवा
कितना ख़ाली है ये दामन जिस तरह दामान-ए-दश्त
कुछ न कुछ तो दे उसे मेरे ख़ुदा जैसे हवा
ग़ज़ल
कोई वहशी चीज़ सी ज़ंजीर-ए-पा जैसे हवा
इरफ़ान सिद्दीक़ी