कोई टूटी हुई कश्ती का तख़्ता भी अगर है ला 
अभी साहिल पे है तो और पेश-अज़-मर्ग वावैला 
अँधेरी रात से डरता है मीर-ए-कारवाँ हो के 
अँधेरा है तो अपने दाग़-ए-दिल की रौशनी फैला 
न घबरा तीरगी से तू क़सम है संग-ए-असवद की 
कि तारीकी ही में सोई है शाम-ए-गेसू-ए-लैला 
मज़ाक़-ए-शादी-ओ-ग़म ता-कुजा ऐ ख़ाक के पुतले 
जो इन दोनों से बाला-तर हों ऐसी भी कोई शय ला 
शराब-ए-अस्र-ए-नौ में बे-ख़ुदी है नय ख़ुदी साक़ी 
जो तू ने आज से पहले पिलाई थी वही मय ला 
मन अंदाज़-ए-क़दत-रा मी शनासम मर्द-ए-अफ़रंगी 
कि कपड़े साफ़ हैं लेकिन बदन नापाक दिल मैला 
किसी का नाज़-ए-हुस्न और ऐ 'शफ़ीक़' अपना ये कह देना 
कि क़ीमत में अगर दिल के बराबर हो कोई शय ला
        ग़ज़ल
कोई टूटी हुई कश्ती का तख़्ता भी अगर है ला
शफ़ीक़ जौनपुरी

