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कोई टूटी हुई कश्ती का तख़्ता भी अगर है ला | शाही शायरी
koi TuTi hui kashti ka taKHta bhi agar hai la

ग़ज़ल

कोई टूटी हुई कश्ती का तख़्ता भी अगर है ला

शफ़ीक़ जौनपुरी

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कोई टूटी हुई कश्ती का तख़्ता भी अगर है ला
अभी साहिल पे है तो और पेश-अज़-मर्ग वावैला

अँधेरी रात से डरता है मीर-ए-कारवाँ हो के
अँधेरा है तो अपने दाग़-ए-दिल की रौशनी फैला

न घबरा तीरगी से तू क़सम है संग-ए-असवद की
कि तारीकी ही में सोई है शाम-ए-गेसू-ए-लैला

मज़ाक़-ए-शादी-ओ-ग़म ता-कुजा ऐ ख़ाक के पुतले
जो इन दोनों से बाला-तर हों ऐसी भी कोई शय ला

शराब-ए-अस्र-ए-नौ में बे-ख़ुदी है नय ख़ुदी साक़ी
जो तू ने आज से पहले पिलाई थी वही मय ला

मन अंदाज़-ए-क़दत-रा मी शनासम मर्द-ए-अफ़रंगी
कि कपड़े साफ़ हैं लेकिन बदन नापाक दिल मैला

किसी का नाज़-ए-हुस्न और ऐ 'शफ़ीक़' अपना ये कह देना
कि क़ीमत में अगर दिल के बराबर हो कोई शय ला