कोई तो है जो आहों में असर आने नहीं देता
मिरे नख़्ल-ए-तमन्ना पे समर आने नहीं देता
लिए फिरता है मुझ को क़र्या क़र्या कू-ब-कू हर दम
मगर सारे सफ़र में मेरा घर आने नहीं देता
मिरे ख़ूँ से जलाता है चराग़-ए-शहर-ए-अहल-ए-ज़र
मिरे ही घर के आँगन में सहर आने नहीं देता
खिलाता है वो दिल में नित-नए गुल आरज़ूओं के
मगर होंटों तलक इस की ख़बर आने नहीं देता
जिधर भी देखता हूँ मैं नज़र आता है बस वो ही
मुझे अपने अलावा कुछ नज़र आने नहीं देता
खुला रखता है मेरे सामने अफ़्लाक का मंज़र
मगर कुछ सोच कर वो मेरे पर आने नहीं देता
ख़ुदाया वक़्त के उस पार क्या असरार हैं पिन्हाँ
मुसाफ़िर को कभी तो लौट कर आने नहीं देता
मैं जाना चाहता हूँ पर मिरी मजबूरियाँ 'इमरान'
वो आना चाहता है कोई डर आने नहीं देता
ग़ज़ल
कोई तो है जो आहों में असर आने नहीं देता
इमरान-उल-हक़ चौहान