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कोई मुझ सा मुस्तहिक़्क़-ए-रहम-ओ-ग़म-ख़्वारी नहीं | शाही शायरी
koi mujh sa mustahiqq-e-rahm-o-gham-KHwari nahin

ग़ज़ल

कोई मुझ सा मुस्तहिक़्क़-ए-रहम-ओ-ग़म-ख़्वारी नहीं

मुंशी नौबत राय नज़र लखनवी

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कोई मुझ सा मुस्तहिक़्क़-ए-रहम-ओ-ग़म-ख़्वारी नहीं
सौ मरज़ हैं और ब-ज़ाहिर कोई बीमारी नहीं

हर क़दम पर बाग़-ए-आलम में बिछा है दाम-ए-हुस्न
कौन ऐसा है जिसे ज़ौक़-ए-गिरफ़्तारी नहीं

देखे गर ग़ौर से दुनिया है ग़फ़लत का तिलिस्म
ये भी ख़्वाब-ए-इश्क़ है फ़ुर्क़त से बेदारी नहीं

जान ले कर भी जो हाथ आए तो अर्ज़ां जानिए
सहल ऐसी जिंस-ए-उल्फ़त की ख़रीदारी नहीं

इश्क़ की नाकामियों ने इस क़दर खींचा है तूल
मेरे ग़म-ख़्वारों को अब यारा-ए-ग़म-ख़्वारी नहीं

मुझ से ज़ब्त-ए-दर्द-ए-उल्फ़त की शिकायत है फ़ुज़ूल
ऐ दिल-ए-नादाँ तुझे एहसास-ए-ख़ुद-दारी नहीं

मेरी दौलत देख कर क्यूँ तुम ने ठंडी साँस ली
बे-कसों पर रस्म-ए-आईन-ए-सितमगारी नहीं

हर तरफ़ से ये सदा आती है मुल्क-ए-हुस्न में
ये वो दुनिया है जहाँ रस्म-ए-वफ़ादारी नहीं

हो गया शायद कि सर्फ़-ए-सोज़-ए-ग़म सब ख़ून-ए-दिल
आँसुओं का अब वो दरिया आँख से जारी नहीं

उस को रहम आए कहाँ ये ना-उमीदी में उमीद
दिल को ख़ुश करना है शग़्ल-ए-गिर्या-ओ-ज़ारी नहीं

हम हैं चुप बैठे हुए लेकिन है दिल मसरूफ़-ए-इश्क़
इस अदीम-उल-फ़ुर्सती का नाम बेकारी नहीं

बंद आँखों से नज़र आती है हर शय दहर की
आलम-ए-रूया में फ़र्क़-ए-ख़्वाब-ओ-बेदारी नहीं