कोई मुझ सा मुस्तहिक़्क़-ए-रहम-ओ-ग़म-ख़्वारी नहीं
सौ मरज़ हैं और ब-ज़ाहिर कोई बीमारी नहीं
हर क़दम पर बाग़-ए-आलम में बिछा है दाम-ए-हुस्न
कौन ऐसा है जिसे ज़ौक़-ए-गिरफ़्तारी नहीं
देखे गर ग़ौर से दुनिया है ग़फ़लत का तिलिस्म
ये भी ख़्वाब-ए-इश्क़ है फ़ुर्क़त से बेदारी नहीं
जान ले कर भी जो हाथ आए तो अर्ज़ां जानिए
सहल ऐसी जिंस-ए-उल्फ़त की ख़रीदारी नहीं
इश्क़ की नाकामियों ने इस क़दर खींचा है तूल
मेरे ग़म-ख़्वारों को अब यारा-ए-ग़म-ख़्वारी नहीं
मुझ से ज़ब्त-ए-दर्द-ए-उल्फ़त की शिकायत है फ़ुज़ूल
ऐ दिल-ए-नादाँ तुझे एहसास-ए-ख़ुद-दारी नहीं
मेरी दौलत देख कर क्यूँ तुम ने ठंडी साँस ली
बे-कसों पर रस्म-ए-आईन-ए-सितमगारी नहीं
हर तरफ़ से ये सदा आती है मुल्क-ए-हुस्न में
ये वो दुनिया है जहाँ रस्म-ए-वफ़ादारी नहीं
हो गया शायद कि सर्फ़-ए-सोज़-ए-ग़म सब ख़ून-ए-दिल
आँसुओं का अब वो दरिया आँख से जारी नहीं
उस को रहम आए कहाँ ये ना-उमीदी में उमीद
दिल को ख़ुश करना है शग़्ल-ए-गिर्या-ओ-ज़ारी नहीं
हम हैं चुप बैठे हुए लेकिन है दिल मसरूफ़-ए-इश्क़
इस अदीम-उल-फ़ुर्सती का नाम बेकारी नहीं
बंद आँखों से नज़र आती है हर शय दहर की
आलम-ए-रूया में फ़र्क़-ए-ख़्वाब-ओ-बेदारी नहीं
ग़ज़ल
कोई मुझ सा मुस्तहिक़्क़-ए-रहम-ओ-ग़म-ख़्वारी नहीं
मुंशी नौबत राय नज़र लखनवी