कोई मौसम हो भले लगते थे
दिन कहाँ इतने कड़े लगते थे
ख़ुश तो पहले भी नहीं थे लेकिन
यूँ न अंदर से बुझे लगते थे
रोज़ के देखे हुए मंज़र थे
फिर भी हर रोज़ नए लगते थे
उन दिनों घर से अजब रिश्ता था
सारे दरवाज़े गले लगते थे
रह समझती थीं अँधेरी गलियाँ
लोग पहचाने हुए लगते थे
झीलें पानी से भरी रहती थीं
सब के सब पेड़ हरे लगते थे
शहर थे ऊँची फ़सीलों वाले
डर ज़माने के परे लगते थे
बाँध रक्खा था ज़मीं ने 'अल्वी'
हम मगर फिर भी अड़े लगते थे
ग़ज़ल
कोई मौसम हो भले लगते थे
मोहम्मद अल्वी