कोई मजनूँ कोई फ़रहाद बना फिरता है 
इश्क़ में हर कोई उस्ताद बना फिरता है 
जिस से ताबीर की इक ईंट उठाई न गई 
ख़्वाब के शहर की बुनियाद बना फिरता है 
पहले कुछ लोग परिंदों के शिकारी थे यहाँ 
अब तो हर आदमी सय्याद बना फिरता है 
धूप में इतनी सुहुलत भी ग़नीमत है मुझे 
एक साया मिरा हम-ज़ाद बना फिरता है 
बाग़ में ऐसी हवाओं का चलन आम हुआ 
फूल सा हाथ भी फ़ौलाद बना फिरता है 
नक़्श-बर-आब तो हम देखते आए लेकिन 
नक़्श ये कौन सा बर्बाद बना फिरता है
        ग़ज़ल
कोई मजनूँ कोई फ़रहाद बना फिरता है
इमरान आमी

