EN اردو
कोई कुछ भी कहता रहे सब ख़ामोशी से सुन लेता है | शाही शायरी
koi kuchh bhi kahta rahe sab KHamoshi se sun leta hai

ग़ज़ल

कोई कुछ भी कहता रहे सब ख़ामोशी से सुन लेता है

शारिक़ कैफ़ी

;

कोई कुछ भी कहता रहे सब ख़ामोशी से सुन लेता है
उस ने भी अब गहरी गहरी साँसें लेना सीख लिया है

पीछे हटना तो चाहा था पर ऐसे भी नहीं चाहा था
अपनी तरफ़ बढ़ने के लिए भी उस की तरफ़ चलना पड़ता है

जब तक हो और जैसे भी हो दूर रहो उस की नज़रों से
इतना पुराना है कि ये रिश्ता फिर से नया भी हो सकता है

जैसे सब तूफ़ान मिरी साँसों से बंधे हों मुझ में छुपे हों
दिल में किसी डर के आते ही ज़ोर हवा का बढ़ जाता है

मैं तो फ़सुर्दा हूँ ही लेकिन अश्क रक़ीब की आँख में भी हैं
एक महाज़ पे हारे हैं हम ये रिश्ता क्या कम रिश्ता है

रंग में हैं सारे घर वाले खनक रहे हैं चाय के प्याले
दुनिया जाग चुकी है लेकिन अपना सवेरा नहीं हुआ है